सोमवार को रैला में मनाया जायेगा श्री लक्ष्मी नारायण के समान में मूल पर्व
:- राजा बहादुर सिंह ने नतमस्तक होकर समर्पित की थी श्री लक्ष्मी नारायण को मूल पर्ब, व दान की थी सैकड़ों बीघा भूमि
मुनीष कौंडल।
रामायण महाभारत आदि जैसे कई पौराणिक तथ्य व ग्रंथ, कुल्लू घाटी के मूल संदर्भ में, इस घाटी की प्राचीनता का ब्योरा देते हैं। वह इसके साथ साथ जिला भर के देवी देवताओं के तिथि उत्सव के रूप में मनाए जाने वाले तिथि पर्व भी इसकी प्राचीनता का जिक्र करते हैं। इन सभी प्राचीनतम रीति रिवाजों का जिला भर में आज भी समाज को एकता में जोड़े रखने के लिए निर्वहन करते है इसी कड़ी में सोमवार को सैंज घाटी के रूपी रैला में प्रभु लक्ष्मी नारायण की समान में मूल पर्व का भव्य आयोजन होगा। जिसमें हिमाचल प्रदेश समेत अन्य राज्यों के श्रद्धालुओं में प्रभु दर्शन के लिए इस दिन रूपी रैला में बढ़-चढ़कर भाग लेंगे। आपको बताते चने की चैत्र मास के मूल नक्षत्र के दिन हर वर्ष रूपी रहना के बागी नामक स्थान में मूल पर्व का आयोजन होता है जिसमें प्रभु श्री लक्ष्मी नारायण जी अपने मूल स्थान सर्चनीग्रा से अपने रथ में विराजमान होकर लाभ लश्कर के साथ रेअलाग्रा होते हुए लक्ष्मी नारायण मेला मैदान सह पहुते है। सह से गंड मूल लग्न लगने से पहले यहां से प्रस्थान करके बागी में प्रवेश करते हैं। जहां पर प्राचीन काल से आ रहे परंपरा किया अनुसार देव कार्यों का निर्माण होता है और दराज से आए हुए सभी भक्तों की देवली की जाती है सभी को सुख समृद्धि का आशीर्वाद दिया जाता है।
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क्या है मूल पर्व का इतिहास,आखिर क्यों मनाई जाती है श्री लक्ष्मी के समान में हर वर्ष मूल पर्व
अगर हम बात करे सैंज घाटी की ग्राम पंचायत रैला में श्री लक्ष्मी नारायण के जन्म तिथि के रूप में मनाए जाने वाले मूल की तो इसका इतिहास अगर खंगाला जाए तो यह पर्व 1532 ई०में तत्कालीन कुल्लू के राजा बहादुर सिंह द्वारा श्री लक्ष्मी नारायण को समर्पित किसा है। यह मूल पर्व अंतर्राष्ट्रीय कुल्लू दशहरे से भी प्राचीन है वहीं अगर अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरे का बात करें तो भले ही यह आज विश्व प्रसिद्ध हो चुका हो मगर मूल पर्व से 121वर्ष बाद से शुरू हुआ है। वही आज भी राजा बहादुर सिंह का जिक्र यहां की देव भारथा में मिलता है। इतिहास में अगर झांक कर देखे तो 1532 ई०में ही राजा बहादुर सिंह ने राणा और ठाकुरों से वजीरी रूपी को जीत कर कुल्लू राज्य का भाग बना लिया था। अगर यहां की जनश्रुति को सुना जाए तो बताया जाता है कि 1532ई०में राजाओं के राज में हकूमत राजा की होती थी जब भगवान श्री लक्ष्मी नारायण जी की मूर्ति (मोहरा) चैत्र मास के मूल नक्षत्र को वागी नामक स्थान में मिला तो उस मूर्ति (मोहरे)मिलने की जानकारी जब तत्कालीन राजा बहादुर सिंह को प्राप्त हुई तो राजा के द्वारा मूर्ति(मोहरे) व उस बागी की सेरी पर हक जताया गया! राजा का फरमान सुनते ही हारियांन ने राजा को मूर्ति न देने का फैसला लिया गया ! हरियानो द्वारा यह मूर्ति श्री लक्ष्मी नारायण जी की बताई गई। इस बात पर गहन मंथन के बाद हरियाणा और राजा के मध्य एक समझौता हुआ जिस पर राजा बहादुर सिंह ने भगवान लक्ष्मी नारायण के समक्ष एक शर्त रखी कि मेरा असल बकरा होगा और नारायण जी का आटे का बकरा होगा! इन दोनों बकरों में जो बकरा इस वागी की सेरी में जुव ( घास) को खायेगा ये मूर्ति ओर वागी की सेरी उसी की होगी! फैसला समस्त प्रजा द्वारा स्वीकार किया गया ! जब असल बकरे ओर आटे के बकरे को वागी की सेरी में छोड़ा गया तो भगवान श्री लक्ष्मी नारायण की लीलाओं से राजा का असल बकरा उसी वागी नामक स्थान पर मर जाता है और नारायण जी का आटे के बकरे ने जुव (हरी घास) को चर कर खा लिया उसी क्षण राजा बहादुर सिंह ने श्री लक्ष्मी नारायण जी से माफी मांगी और वो मूर्ति सहित समस्त वागी की सेरी समेत सैकड़ों बीघा भूमि को भगवान लक्ष्मी नारायण नारायण जी को समर्पित कर दिया! और राजा ने समस्त प्रजा में ये एलान कर दिया कि अब हर वर्ष चैत्र नक्षत्र के दिन भगवान लक्ष्मी नारायण के जन्मतिथ के रूप में मनाया जाएगा तब से लेकर ये मूल पर्व आजतक धूमधाम से मनाया जाता है! इस दिन जो भी श्रद्धालु लक्ष्मी नारायण के इस बागी सेरी में कोई फरियाद लेकर आता है तो अवश्य ही में पूरी हो जाती है।